Wednesday 1 July 2020

दहेज प्रथा एक सामाजिक कुरीति हैं।

दहेज प्रथा एक सामाजिक कुरीति हैं।

दहेज प्रथा विवाह के समय दुल्हन के माता-पिता द्वारा दूल्हे के परिवार को भारी मात्रा में नकद, गहने और अन्य उपहार देने की अनुमति देती है। यह व्यवस्था भारत में एक कारण के कारण रखी गई थी और वह यह थी कि कुछ दशक पहले तक बालिकाओं को पैतृक संपत्ति और अन्य अचल संपत्तियों पर कोई अधिकार नहीं था और उन्हें नकदी, आभूषण और अन्य सामान जैसे तरल संपत्ति दी गई थी उसे उचित हिस्सा देने के लिए। हालांकि, यह वर्षों में एक बुरी सामाजिक व्यवस्था में बदल गया है।

माता-पिता अपनी बेटी को दहेज के रूप में देने का इरादा रखते हैं, ताकि वह नई जगह पर आत्मनिर्भर बन सकें। दुर्भाग्य से, ज्यादातर मामलों में, सभी मामलों में दूल्हे के परिवार द्वारा लिया जाता है। इसके अलावा, जबकि पहले यह दुल्हन के माता-पिता का एक स्वैच्छिक निर्णय था, यह इन दिनों उनके लिए एक दायित्व बन गया है।

पर्याप्त दहेज नहीं लाने के लिए शारीरिक और भावनात्मक रूप से प्रताड़ित होने वाली दुल्हनों के कई मामले सामने आए हैं। कई मामलों में, दुल्हन अपने परिवार से अपने ससुराल वालों की मांगों को पूरा करने के लिए मुड़ जाती है, जबकि अन्य लोग यातना को समाप्त करने के लिए अपनी जान दे देते हैं। समय आ गया है कि भारत सरकार को इस कुप्रथा को रोकने के लिए सख्त कदम उठाने चाहिए।

सवाल यह है कि दहेज को दंडनीय अपराध बनाने और कई अभियानों के माध्यम से इस प्रणाली के दुष्प्रभावों के बारे में जागरूकता फैलाने के बाद भी लोग अभी भी इसका अभ्यास क्यों करते हैं? यहाँ कुछ मुख्य कारण हैं कि दहेज प्रणाली जनता द्वारा निंदा किए जाने के बावजूद बरकरार है:
ससुराल वाले अक्सर अपनी बहू द्वारा लाए गए उपहारों की तुलना अन्य लड़कियों द्वारा अपने आसपास के क्षेत्र में लाए जाते हैं और व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते हैं, जिससे उन्हें पीड़ा होती है। लड़कियां अक्सर इसके कारण भावनात्मक रूप से तनाव महसूस करती हैं और कुछ अवसाद से भी गुजरती हैं।


एक बालिका को परिवार के लिए बोझ के रूप में देखा जाता है। यह दहेज प्रथा है जिसने कन्या भ्रूण हत्या को जन्म दिया है। कई जोड़ों द्वारा महिला भ्रूण का गर्भपात कराया जाता है। बालिकाओं को छोड़ दिए जाने के मामले भारत में भी आम हैं।

विवाह में प्रचलित वर्तमान परंपरा का त्याग :-

हमारे देश भारत में धीरे धीरे दहेज प्रथा बढ़ते ही चले जा रहा है। आज के इस आधुनिक युग में भी दहेज प्रथा देश में एक अभिशाप के रूप में फैल चुका है। आज भी इस 21वीं सदी में बेटी के जन्म लेते ही ज्यादातर माता-पिता के सिर पर चिंता सवार हो जाता है।


चिंता इस बात की नहीं होती है की लड़की की पढ़ाई कैसे करवाएंगे? चिंता तो इस बात की होती है की विवाह कैसे करवाएंगे, विवाह के लिए दहेज कैसे इकट्ठा करेंगे? यही सोच दहेज़ प्रथा जैसी सामाजिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं।


पुराने जमाने में है दहेज की प्रथा नहीं थी

विवाह में व्यर्थ का खर्च त्यागना पड़ेगा। जैसे बेटी के विवाह में बड़ी बारातका आना, दहेज देना, यह व्यर्थ परंपरा है। जिस कारण से बेटी परिवार पर भारमानी जाने लगी है और उसको गर्भ में ही मारने का सिलसिला शुरू है जोमाता-पिता के लिए महापाप का कारण बनता है। बेटी देवी का स्वरूप है। हमारीकुपरम्पराओं ने बेटी को दुश्मन बना दिया। श्री देवीपुराण के तीसरे स्कंद में प्रमाणहै कि इस ब्रह्माण्ड के प्रारम्भ में तीनों देवताओं (श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथाश्री शिव जी) का जब इनकी माता श्री दुर्गा जी ने विवाह किया, उस समय न कोईबाराती था, न कोई भाती था। न कोई भोजन-भण्डारा किया गया था। न डी.जे
बजा था, न कोई नृत्य किया गया था। श्री दुर्गा जी ने अपने बड़े पुत्र श्री ब्रह्माजी से कहा कि हे ब्रह्मा! यह सावित्री नाम की लड़की तुझे तेरी पत्नी रूप में दीजाती है। इसे ले जाओ और अपना घर बसाओ। इसी प्रकार अपने बीच वाले पुत्रश्री विष्णु जी से लक्ष्मी जी तथा छोटे बेटे श्री शिव जी को पार्वती जी को देकर कहाकि ये तुम्हारी पत्नियां हैं। इनको ले जाओ और अपना-अपना घर बसाओ। तीनोंअपनी-अपनी पत्नियों को लेकर अपने-अपने लोक में चले गए जिससे विश्व काविस्तार हुआ।






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